सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

सदा सुहागिन धरती

सदा सुहागिन धरती

उतरा है लो चाँद धरा पर
पर  गुमसुम ,कितना खामोश
स्पंदन हीन हुआ था भावुक
बस   आँखों से उगले आक्रोश
रहती क्यों चुपचाप धरा
क्यों करती है यह विषपान
द्रवित हृदय पर क्षमा बांटती
सह  कर भी कितना अपमान
अनबुझ एक पहेली मानो
इसके भीतर सच पहचानो
सप्त ऋषि की एक कल्पना
संग सभी पर तन्हा  जानो
चंदा डोले वन -उपवन में
हर वीथी और हर सरहद में
बन ज्ञान की अमर वर्तिका
सन्देश फैलाए जगतीतल में
फिर धानी चूनर पहना दो
फिर सोलह सिंगार सजा दो
बेवा होती इस धरनी को
दुल्हन का  स्वरुप बना दो 
प्यार जताती मेरी धरती
सर्वस्व लुटाती मेरी धरती
नष्ट करो मत प्राकृत इसका
सदा सुहागिन मेरी धरती