सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

भ्रम मन का

भ्रम मन का

वक्त की दीवारों से
अब भी कभी कभी
अवसाद रिस्ता है
जो गीला कर देता है
आशा की चुनरी को
वक्त के आँगन से
अब भी कभी कभी
अवसाद बिखरता है
जो चुभ जाता है
आस के पैरो को
वक्त की देहरी पर
अब भी कभी कभी
साकल लगाता है
जो रोक देता है
आस की मुस्कान को
उषा की बेला में
जब  निहारती हूँ
वक्त के क्षिटीज़ को
अवसाद का काला रंग
मिल जाता है नभ में
और बना देता है
इक इंद्र धनुष
सतरंगी इंद्रधनुष
जो कर देता है
चटकीला अवसाद की
स्याही को !!!!!!