कसक
क्षुधा- पिपासा हर चाहत की
जैसे आज रुग्न हो गयी
पग बोझिल अब हुआ पथिक का
चाक अंधेरों में घिर आया
रंजित हुआ मन का गुलशन
अवसादित हर फूल कुह्म्लाया
मत बात करो ऋतुराज की मुझसे
पतझर और कितने आने है
रूठ गये हैं छंद और मुक्तक
गीत और अब क्या गाने है
अंकित करता अपने पथ पर
छाप तेरे हर पद आहट की
संचित करता अपनी झोली में
मुस्काते तेरे साए की
नहीं तकता मैं बाट तुम्हारी
नहीं होता मन झंकृत तुमसे
कसक अभी जिन्दा है लेकिन
लडती है अपने ही मन से