रविवार, 1 जुलाई 2012

पराकाष्ठा वेदन की !!!!

मित्रों ! यह कविता में श्री राघवेन्द्र अवस्थी जी की पोस्ट से प्ररित हो कर लिखी है जिसने उन्हों ने अपनी माँ की पीड़ा को अपने बच्चो का गंगा मैया द्वारा लील जाने पर व्यक्त किया है.......एक माँ का दर्द अपने बचों को खो कर कैसा होगा यही मैंने महसूस किया और उसे व्यक्त किया
पराकाष्ठा वेदन की !!!!

उफ ! वेदन की पराकाष्ठा
धीर हुआ जाता है मद्धम
रूदन थका पर चला निरंतर
फीके फीके आश्वासन है
धूमिल चिंतन और विचलित मन
व्याकुल हुई आस की चाहत
विचर रही है बेकल बेकल
पूरब से जो निकली धारा
बह जाती पश्चिम  में कल -कल 
व्यर्थ रहे अनुवाद विवादित
व्यर्थ हुआ अपनों का कलरव
व्यर्थ हुये  सब राग रागिनी
बस सुलग रहा वेदन का शव
बन बैठा मन मौन तपस्वी
किये धारण हठ-योग की मुद्रा
शिथिल शिला सा हुआ पड़ा तन
उफ !वेदन  की पराकाष्ठा