कर्म चक्र
रोज़ सुबह सूरज है चढ़ता
साँझ ढले छिप जाता है
तारों की डोली में सज कर
वसुधा पर चंदा आता
नियमित घूमे गोल धरा
और संग में घूमे सारा मंडल
बीच अधर में लटके लटके
चलता चक्कर हुआ ना बेकल
प्रकृति के इन कलपुर्जों में
सामजस्य भी हुआ अचंभित
काल चक्र के कल पुर्जों में
फंस कर मानव हुआ अचंभित
काल कर्म की वैतरिणी में
बहता मानव प्रतिपल प्रति क्षण
थक कर रूकने को होता उद्यत
बह जाता हर बार फिसल कर
डरता है वह रूक जाने से
डरता है फिर बह जाने से
डरता है फिर कदम ताल से
डरता है इस समय जाल से
थक जाता मन अगर कभी
तो सागर तट पर आ जाता
उठती गिरती लहरों संग
मन विह्ल भाव मुस्का जाता
मिट जाता तब सब रीता पन
बहे तरन्नुम का झूला
फीके फीके मधुकुंजो में भी
खिले सुमन ,मन फूला फूला
तो सागर तट पर आ जाता
उठती गिरती लहरों संग
मन विह्ल भाव मुस्का जाता
मिट जाता तब सब रीता पन
बहे तरन्नुम का झूला
फीके फीके मधुकुंजो में भी
खिले सुमन ,मन फूला फूला
करता है प्रयतन पुनह तब
करे दूर मन की शंकाए
भागीरथ प्रयत्न करे तब
प्राकृतिक कल पुर्जा बन पाए