अंतर्मन की छाया
हर इक छाया की छाया में
हर पल की प्रतिछाया है
कितना भी सुलझा लो इसको
कितना भी सुलझा लो इसको
यह उलझी रहती माया है
नहीं उजागर होता कोई
दाग भला इसमें पूछो क्यों
इस छाया से लिपटी हुई
दाग भला इसमें पूछो क्यों
इस छाया से लिपटी हुई
हर जन की इक काया है
रात हुई तो सो जाती है
चदता सूरज झट उठ जाती
ऊँचा होता मानव जितना
बढ़ कर आगे निकल जाती है
म्ह्त्वान्क्षा मेरी सबकी
अभिलाषा को हर पल दर्शाती
चेतन सुप्त हुई तो भी क्या
अवचेतन मन को झुलसाती
दंभ इड़ा इर्ष्या की भगिनी
विषय घृणा, क्रोध बरसाती
अंतर्मन गर हो जो निश्छल
कुंदन बन तन को चमकाती