अकेलापन
पल चुराता है
लब छुपाता है
नम आँखों से
गीत सुखाता है
अकेलापन
बीहड़ के देहरी पर
वेदन की वीणा बन
रोदन के सरगम पर
स्वर सजाता है
अकेलापन
चुप्पी में डूबा सा
घुट घुट कर जीता सा
उड़ने को नभ में
खग सा फडफडाता है
अकेलापन
थकता है ना रूकता है
रूक रूक कर बढ़ता है
अनंत की सीमा पर
गृहस्थी जमाता है
अकेलापन ?
पन यह अकेले का
मत पालो झमेले सा
जीवन के मधु पल में
पतझर को बुलाता है