गुरुवार, 29 सितंबर 2011

और बस्ती जलती रही....

और बस्ती जलती रही....
बेजान पत्थरों का शहर
कोई मूक आवाज
जोर जोर से चिल्लाती रही
लौट कर आती थी
हर आहट और कर जाती थी
आहत दिल को
तेज़  हवा
बुझती राख में
चिंगारी सी भरती रही
और बस्ती जलती रही
भर जाता था  कोई
हरे हरे जख्मो को
हरा कर जाता था  कोई
भरे हुये जख्मो को
शबनमी मुस्कान
रात  भर उस आग को
ठंडा करती रही
और बस्ती जलती रही