गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

प्रकृति की पुकार

प्रकृति की पुकार

वाह!यह धरती गगन ,यह नदियाँ पहाड़
जैसे !विधि की कलम का अनूठा आविष्कार
उफनती नदी की उछलती तरंगे
वोह गिरते हुये झरनों की उमंगें
तुहिन श्रृंखला पर चमकती वो धूप
चकित है प्रकृति निरख निज रूप
शयामल वसन में लिपटता यह अम्बर
दुशाला धरा ने भी ओढा पीताम्बर
सरसों की क्यारी ,वो केसर के फूल
रज-कण में लुकते छिपते से शूल
फैले तरु की लचकती शाखाएं
डाल-डाली पल्लव यूं सब को बुलाएं
संभालो धरा को ,संभालो गगन
संभालो मधु उपवन ,संभालो चमन
ग्लोबल वार्मिंग का फैला यह जाल
उठो रोको इस को ग्रस पाए ना काल
तड़पती प्रकृति की लरजती पुकार
जरा ध्यान दे कर सुनो तुम भी यार
पुरुष हो,  प्रकृति से करते हो प्यार
संभालो.संभालो,संभालो इसका संसार