गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

जख्म हरा हरा सा है

 जख्म हरा हरा सा है 

यह दर्द भरा भरा सा है
 यह जख्म हरा हरा सा है 
यह गीत अधूरा अपना है
कोई सोज़ भरा सपना है
चुभते थे लफ्ज़ जमाने के
उभरे थे हर्फ़ अनजाने  से
लौ शम्मा की तडपाती थी
जलते परवाज़ परवाने के
बन कर आता था मीत कोई
चल चार कदम संग बैठ गया
अपने दर्पण में जकड  मुझे
समझ चित्र दीवार पे टांग गया
है कौन समझ पाए मन को
अब  कौन समझाए उस जन को
खोल अपने मन के भेदों को
प्रेम  के बंधन  तोड़ गया