बुधवार, 7 दिसंबर 2011

अबूझा दिनकर

 अबूझा दिनकर

एक अबूझा दिनकर है
ख्वाबो में खूब चमकता है
मिल जो  जाए धरती पर
अंधेरों में जा छिपता है
बेताब उमड़ता रहता है
मन की भाषा पढने को
दिख भी जाए दो शब्द नये
अपलक निहारा करता है
मौन मुखरता रहता है
लम्हा-लम्हा यूं सिमटा सा
पाने को स्नेह-सिक्त दो बोल
हर वेदन  को वह सहता है 
पीड़ा की तारों से गुंजित
वह अभिव्यक्त ,अभिलाषी
अपने ही तम को हरने को
वह एक रश्मि का प्रत्याशी
मत जी का जंजाल करो
उलटे सीधे न सवाल करो
उसका तेज़ चमकने दो 
अबूझे  को स्वीकार करो