सोमवार, 21 नवंबर 2011

अधूरी यात्रा

अधूरी यात्रा
देहरी पर आकर
सहसा आयी एक आवाज़
चौंका देती है
छू कर चली जाती है मन को
झकझोर जाती है तन को
और मैं
अवाक ,हताश , पकड़ने की कोशिश में
उसके पीछे दौड़ता हूँ नंगे पाँव
दूर तक अँधेरा है
जुगनू की मद्धम रौशनी चमकाती है
आवाज़ नेपथ्य से बुलाती है
मन ज्वाला मुखी सा फट
लावा उगलता है
गर्माता है, दहकाता है ,
तेज़ लपटों के साथ अंतस को
जलाता है
आवाज़ फिर गूंजती है
जिस्म में जान फूंकती है
और मैं  फिर दौड़ पड़ता हूँ .
अपने गंतव्य की और ..
पूरी करने
एक अधूरी यात्रा ....