मित्रता और मित्र
जैसे कल्पना के कैनवास पर
अपने ख्यालो की तुलिका से
बनाया हुआ चित्र
वक़्त कहा है आजमाने को
दिल ही कहा है उसे समझ जाने को
चित्र से मिलता जुलता मिल गया तो
बना जीवन का अंग अभिन्न
और गर कही भेद हुआ तो
हुआ जीवन उससे भिन्न
मन अपने ही जाले बुनता है
रोज़ नयी तस्वीरे गढ़ता है
और मित्रता के नाम पर
कोरे स्वांग सोचता है
पहनाता है नया जामा भ्रम को अपने
मन ही मन फिर बुनता है सपने
खोज नहीं पूरी होती है
और तन्हाई की चादर ओढ़
उसकी दुनिया सोती है