शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

तृष्णा

तृष्णा

भावनाओं के परिंदे को
ऊंची उड़ान ज़रा भरने दो 
आकाश अनंत है
स्वछंद विचरने दो
थक जाए गा उड़ कर खुद ही
तो ढूँढेगा कोई  आशियाँ
पाने को कही चैन दो पल का
देगा कई इम्तहान
मन अंतर्मन से  लड़ता है
बस संवादों में  उलझता है 
तर्क-वितर्क   के धागों  से
जीवन के तंतु बुनता है
दिल की  बाते करता है
पर मन ही मन में डरता है
भावों की बाते करता है
अपनाने से बचता है
मर्यादा का जिक्र करेगा कौन
निर्धारित सीमा से क्या होगा
यह मन के अपने ही बंधन है
जो खुल कर जीने से डरता है
गर चाह  करो , स्वीकार करो
जितना जी चाहे प्यार करो
असीमित परिधि है जग मंडल की
जिस पर चाहो उपकार करो
अफ़सोस ! निज  स्वार्थ पिपासा में लिपटा
मन भूला भटका फिरता है
पहन कर माला तृष्णा की
अतृप्त अधूरा जीता है
त्रिश्नाएं   जीवन की
बस मन को भटकाती है
सम्पूर्णता में भी सब को
आधा पन  दिखलाती है