रविवार, 27 नवंबर 2011

क्या सारा जहां मुझे चाहिए ?

क्या सारा जहां मुझे चाहिए ?
जीवन के रंग ऋतुओं के संग बदल बदल कर एहसास करा जाते हैं कि धरा परिवर्तन शील है . दुःख -सुख के संगम के किस्से बहुत पुराने है .लकिन अनुभव हमेशा नया दे जाते हैं.भावनाएं फिसल कर उनके कदमो में लिपट जाती है तो वह भी अपने अस्तित्व को हिमालय की शिखरों सा ऊंचा कर लेते हैं .और अगर मन के कोमल भाव सागर की तरंगो जैसे उठ कर सर को छु जाते हैं तो वह भी नगण्य हो जाते हैं . कोई दर्द को सहला गया तो मीत बन गया .कोई दर्द को कुरेद गया तो बेगाना सा लगने लगा .समतल जमीन नहीं मिलती कभी..बस उबड़ खाबड़ रास्तों पर यूं ही चलना होता है . कोई सुर लग गया तो गीत बन गया और अगर कोई तार टूट गया तो राग हो रूठ गया .दिया बुझा और जला ..इसका ज्ञान स्वत ही करने लग गया तो समझो जीवन सार्थक होने लगा .मन के बंधन भी अनूठे से लगते हैं.सब कुछ पा कर भी चाहतो का सिलसिला चलता है और सब को चाह कर भी कुछ रीता रीता सा लगता है .जहाँ में क्या सच और क्या सपना है ? सच कहीं सपना और सपना कही सच हो तो क्या सारा जहाँ शूल और फूल के भेद का अभेद कर पायेगा ?मेरा यह सारा जहाँ है और मैं इस जहाँ का हूँ . यह भाव कितनी सार्थकता रखते हैं ...जीने को खुली हवा और जल चाहिए ..........उड़ने को अनंत आकाश ...सब को यही चाहिए ..मुझे भी यही चाहिए ..तो क्या सारा जहाँ मुझे चाहिए......