शनिवार, 12 नवंबर 2011

दर्द का बुत


दर्द का बुत 

मिलोगे तो जानो गे कितनी उदास शामे है 
चमक जाती है चांदनी फिर भी काली राते है 
समझ बैठे हो जिसे तुम साँसे जीवन की
लेकर कफ़न चादर सा औडाने को तैयार बैठे हैं 
रह रह कर ठगती थी जमाने भर की खुशिया सब 
उठते थे दुःख के जलजले किसी दिल के कोने से 
पग बढ़ते थे मंजिल पर , रूक जाते थे कब्र पर 
छलती  रही मौत मुझे बहुरूपिये  सी तमाम उम्र