रविवार, 28 अगस्त 2011

virh ki kitaab

विरह की किताब

दिल हुआ जैसे विरह  किताब
उलट पलट  कर पन्ने देखे
पर मिल ना पाया  कोई हिसाब
अंक गणित सब गलत हो गया
लिखे जुल्मे मिट  गये सब
सुरमई आँखों के कुछ सपने
जो रजत सरीखे चमचम करते
उत्सव करते इस जन मंच पर
 अब फीके फीके जान से पड़ते
थक हार सब बैठ चुके हैं
सूनी आँखों के पलक द्वार से
धुन्दले हो कर झर झर झरते
वैरागी मन को समझाते
साथ विरह के झूल  चुके हैं
रचना की रचना में रच कर
पिव रस पी कर भूल चके है
अम्बर से बरसे सुधियाँ तो
करते छंद मकरंद का पान
हास और परिहास को तज कर
पाते  दिल से दिल का अजाब
दिल हुआ जैसे विरह  किताब