मंगलवार, 30 अगस्त 2011

vandna

वंदना
अनजाना  पथ था
सघन तिमिर था
एकाकी था
ना  हमसफ़र था
थका थका सा
रुका रुका सा
ढूँढ रहा था
मंजिल अपनी
हिम्मत थी
टूटी जाती थी
साहस था
दम तोड़ चुका था
आशा का दामन
छोड़ चुका था
भूल के अपनी
संचित निधि को
गहन निराशा को
रुख  मोड़ चुका था
उच्श्रीन्ख्लता रो रो कर
अमिट छाप तब
छोड़ चुकी थी
हुआ आगमन
चन्द्र किरण का
चहुँ फ़ैल गया
उज्जवल उजियारा
सत्वर किरने
रजत वरण सी
चीरती जाती
कटुतम अंधियारा
उत्तर दिशी से
बन कर उतरे
देवदूत से
धवल सुधाकर
नीरज के कोमल
 अधरों  पर
मुस्काये और फैल गये
बन कर कुसुमाकर
हरियाली अब
चहुँ और थी
आशा की फैली
चादर में
साहस के मोती
झरते थे
प्रशस्त मार्ग को
रौशन करते
जगमग दीप
जला करते थे
धन्यवाद, हे सुकुमार !
मेरा ,तुझ को
किये समर्पित
हृदय दीप
शत शत नमन
करूं  तुझको







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