कर्म रेखा
जब भी
पढने की
रेखाए हाथो की
एक चित्र
उभर आता है
दूर कही वादियों में
मन का हारिल
गाता है
आस का पंछी
उड़ते उड़ते
बीच भंवर में
डूब जाता है
वक़्त से पहले
और वक़्त के बाद
मिलने का भेद
समझ में
आ जाता है
दूर चिमनी से
उठता धुयाँ
आसमान में विलीन
हो जाता है
नभ पर बनते
काले बादल
जल के नहीं
धुएं के है
जो बनते है , मिटते हैं
पर वृष्टि नहीं करते है
तब फिर प्रयत्न करते है
छोटा करने की
अपनी भाग्य रेखा
करके लम्बी कर्म रेखा
सुनिशित है सब कुछ
मगर बस एक रेखा
छिप गया सब सार जिसमे
और वोह है
कर्म रेखा .........