शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

bachpan aur bachpna

कितने बड़े हो कर हम बच्चे ही बना रहना चाहते है .
शायद जो निश्चलता बाल पन में है वह किसी और रूप में नहीं
और तुसलीदास एक प्रसंग में भगवान का उल्लेख करते हुए कहा है
"निर्मल मन जस सो मोहे पावा , मोहे कपट चल छिद्र ना भावा "
बड़े हो कर भी बचपन में जीने वाला शायद बहुत सुखी रहता है और कभी कभी बहुत दुःख का भागी भी  बनता है
क्योकिं सामने वाला उसके बचपन को उसकी बेवकूफी समझ लेता है . और समझे भी क्यों ना ?
इंसान के व्यवहार से ही तो उसकी उम्र का अंदाज़ होता है और अधेड़ अवस्था में आकर भी बच्चो जैसी हरकते करने वाले
उपहास का पात्र ही बनते है . शायद में  भी उन सब में से  एक हूँ  जो कि उम्र के पचासवे वसंत में पहुँच कर भी एक चोदह साल के बच्चे
की तरह हरकते करती हूँ  . वह भी समझ नहीं पाती थी की क्यों करती है ऐसी हरकते. इतनी बड़ी उम्र , इतनी बड़े पद पर कार्यस्थ , कैसे बेवकूफी  वाली हरकते करती है
कैसे मचल जाती है एक बच्चे  की तरह ,,,,शायद उसे समझना चाहिए और मासूमियत का नकाब उतार हकीकत में आ जाना चाहिए .
जीवन कभी कभी कठिन सा लगने लगता है ..........हम क्या समझ कर कुछ कर देते है और सामने वाला क्या समझ लेता है .......सोचना तो चाहिए ही ना ..........
कभी कभी सोचती हूँ कि जानबूझ कर कुछ ना समझने की कोशिश करती हूँ .........याँ फिर अपनी ही सोच के दायरे में जीना चाहती हूँ जहाँ कुछ सोचना नहीं पड़ता . एक जीवन जीती हूँ बेसोच भरा ....
याँ फिर इतना सोचती हूँ कि सोच की सोच में डूब कर  क्या सोचना चाहिए यह में ठीक से सोच नहीं पाती, और  यही भूल जाती हूँ कैसे सोचा   यह सब ............
लेकिन इतना तो ज़रूर निचित है की हर इंसान को अपने उम्र से साथ जीना सीख लेना चाहिए और बचकानी हरकते छोड़ कर एक समझदारी और परिपक्व जीवन जीना चाहिये., नादानी नहीं करनी चाहिए ख़ास कर उसके सामने जिस को आप बहुत पयार करते हो . क्योकि वह आप को बेवकूफ समझ कर , आपके बचाकने व्यवहार से तंग आकर मजबूरन आप से आलग हो जाता है
बचपन और बचपने  में फर्क समझना बहुत जरूरी है .