शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

dekh hai kabhi ?

देखा है कभी?
टूटते तारो को
डूबते मझदारो को
बिछड़े किनारों को
कटती पतंग को
उजड़ी  उमंग को
डूबते सूरज को
बिखरते नीरज को
देखा है कभी ?
बहता ही पानी है
श्वसित, जिंदगानी है
भावो का मोल क्या
यथार्थ की जुबानी है
चढ़ते को सलाम है
गिरे तो बस एक कहानी है
देखा है कभी ?
बनते कहानी को
मिटती जिंदगानी को
भीड़ में तन्हाई को
मिलन में जुदाई को
फूल पर धूल को
चुभते हुये शूल को
सिसकती स्मृति को
बेजुबान श्रुति को
देखा है कभी ?
पीतें हैं दर्द यहाँ
लेने को दो सांस
ढोते हैं बोझ यहा
छू लेने को एक आस