रविवार, 31 जनवरी 2016

एक नया युग सजाएं



कब जाना था यूं 
पीछे रह  जाएगी जिंदगी  
न आगे  देख पाएगी जिंदगी 
कब जाना था यूं 
इतना शोर होगा हादसों का 
कि  अपनी  भी आवाज़ 
न सुन पाएगी जिंदगी  

कब जाना था यूं 
हाथ छोड़ देगी जिंदगी 
मुहं मोड़ लेगी जिंदगी 
कब जाना था कि 
वक्त में  इतनी घुटन होगी 
कि अपनी ही सांस 
तोड़ देगी जिंदगी 

पिघलती दीवारें है 
दरकती मीनारे है 
ज्वाल के समुन्दर में 
बर्फ के किनारे है 

कौन जाने , क्या दिशा है
कौन जाने , क्या लिखा है
कौन जाने , क्या मंशा है
कौन जाने  , क्या  रचा  है

अचंभित हूँ फिर भी मैं 
धूप  के अंधेरों में 
नागमणि सी बाम्बियों में 
चमकती है जिंदगी  
एक सांस लेने  को 
तड़पती है जिंदगी 

चलो फिर मिल कर 
एक नया युग सजाएँ 
रह गया जो पीछे 
उसे वापिस बुलाये 
असमंजस के झरोखे से 
झांकती इस जिंदगी को 
आशा के झूले पर 
फिर से झूलायें 
एक नया युग सजाएं