घना अँधेरा पथ पर छाया
जीवन सूखा रूख़ मुरझाया
आशा की ज्योति फीकी सी
दिखता सब कुछ अन सुलझाया
भीतर कृष्णा लुप्त हुआ है
जीवन मन्त्र सुप्त हुआ है
कण -कण जैसे ढूंढ रहा हो
निर्जन चारों व्याप्त हुआ है
निशिता की जीवन बेला है
संपन्न कहाँ सब काज हुए है ?
ज्ञान ध्यान सब धूमिल करता
संशय, दुविधा, व्याप्त हुए है.
ओ गिरिधर ! ओ नटवर नागर
ज्योति बिम्ब हे तेजपुंज
नईया लहरों में अटकी है
हाथ पकड़ कर पार लगाओ