कशिश
बाकी अभी
जो बर्फ सी
जम जाती कभी
कुछ नमी
नम कोरों से
बह कर गर्त
ले जाती सभी।
एक कशिश
प्रयत्क्ष है
जो गुप्त थी
एक कशिश
अवयकत है जो
व्यकत थी
एक कशिश
जो घूमती थी
दर -ब -दर
वह कशिश
स्तब्ध हो
पुकारती है
कल भी थी
कल भी होगी
कर्ज फर्ज का
उतारती है