तपिश
शाम के धुंधलके में
पहाड़ी के पीछे
छिपता हुआ सूर्य बिम्ब
जैसे शर्मिंदा है
अपनी दिनभर की
उद्दंडता के लिए
और पनाह मांग रहा है
रात के आँचल से
रजनी जैसे समा लेती है
हर गुनाह को अपने आँचल में
वैसे ही ढांप लिया है दिनकर को
और सूर्य बाट देख रहा है अगले दिन की
किसी नटखट बालक की तरह
फिर करे वही शैतानी
और बिखरा दे अपनी तपिश
चहुँ ओर !! चहुँ ओर