शनिवार, 6 अगस्त 2016

मेरे अपने

मेरे अपने 

बस एक तुम थे 
अपने 
छोड़ आया था 
तुम को जिस मोड़ पर 
आज भी वही हो 
बिलकुल जैसे सपने  
न कोई रस्म 
न कोई रिवायत 
 जैसे  बस अपनों 
की एक इबादत 
भीड़ का सैलाब 
छोड़  गया साथ 
मिले कई नए 
खो  गए पुराने 
रहे तुम  तठस्थ 
मेरे सिरहाने !!!!!!!!!!!!

रच दिए गीत अनगिन 
ऋतु के मुहानो ने  
अविचल काल चक्र 
था घूमता जहानों में 
विकल मन भटकता था 
खोजता पाषाणों में 
 हीरे की चाहत 
ले गई कई खदानों में 

तुम ! केवल तुम थे 
 दिए जैसे तम  में  
टिमटिमाते ही रहे 
रहे तुम  तठस्थ
मेरे सिरहाने!!!!!!!!!!!!!!!!