रविवार, 30 सितंबर 2012

"चलो कही दूर चलते है "

"चलो कही दूर चलते है "

चलो चले  कहीं बहुत दूर
नदिया के पार
तारो की छाँव
पर्वत की तलहटी पर
एक छोटा सा गाँव 
ना भूख लगे ,ना प्यास जगे
बस अपने मन से मन लगे
चलो चले कही बहुत दूर

 मन के मीठे बोल
बोलें ,बिना किसी तोल-मोल
जहा  बेखटक रात ना जाए
बिन बुलाये दिन ना आये
तारे दामन में भर लें
जुगनू नीले नभ पर छायें
चलो चले कही बहुत दूर

लहरे

लहरे

लहर लहर लहराती लहरे
तट से आ टकराती लहरे
मन में संबल बन कर बसती
शांत धरा उकसाती लहरे
ठहर ठहर कह जाती लहरे
जीवन पथ दर्शाती लहरे

संभल संभल उठ पुनह संभल
सहज भाव कह जाती लहरे
साहस की परिचायक लहरे
दुविधा की सहनायक लहरे
असमंजस को धूमिल करती
वसुधा की अधिनायक लहरे
रूक जायो तो छोर ना पकडे
संग बहो मझदार ना अटके
कठिन धरातल पर जो अटको
जीवन का अभिसार ना भटके

सोमवार, 24 सितंबर 2012

वापसी

वापसी 


वक्त की बुनियाद पर थी
चाहतों की वापसी 
जलजले बढ़ते रहे 
थी हादसों की वापसी 
तुम ना चाहते तो भी 
तूफ़ान यह आना ही था 
बढ़ते दरिया के कदम और 
लहरों की थी वापसी 
बाँध कौन पाया है मन को 
बनते बिगड़ते भाव को
सत्य के आलोक में भी
कल्पना की वापसी
लम्हा लम्हा जी उठा था
याद के धुंधलकों में
चिर पुरातन मौन था
और नव ध्वनि की वापसी

लहरे



लहरे

लहर लहर लहराती लहरे 
तट से  आ टकराती लहरे 
मन में संबल बन कर बसती
शांत धरा उकसाती लहरे 
ठहर ठहर कह जाती लहरे 
जीवन पथ दर्शाती लहरे 
संभल संभल उठ पुनह संभल 
सहज भाव कह जाती लहरे 
साहस की  परिचायक लहरे 
दुविधा की सहनायक लहरे 
असमंजस को धूमिल करती 
वसुधा की  अधिनायक लहरे 
रूक जायो तो छोर ना पकडे 
संग बहो मझदार ना अटके 
कठिन धरातल पर जो अटको 
जीवन का अभिसार ना भटके 

रविवार, 16 सितंबर 2012

कर्म चक्र

कर्म चक्र
 
रोज़ सुबह सूरज है चढ़ता
साँझ ढले छिप जाता है
तारों की डोली में सज कर
वसुधा पर चंदा आता
नियमित घूमे गोल धरा
और संग में घूमे सारा मंडल
बीच अधर में लटके लटके
चलता चक्कर हुआ ना बेकल
प्रकृति के इन कलपुर्जों में
सामजस्य भी हुआ अचंभित   
काल चक्र के कल पुर्जों में
फंस कर मानव हुआ अचंभित
 काल कर्म की वैतरिणी में
बहता मानव प्रतिपल प्रति क्षण
थक कर रूकने को होता उद्यत
बह जाता हर बार फिसल कर
डरता है वह रूक जाने से
डरता है फिर बह जाने से
डरता है फिर कदम ताल से
डरता है इस समय जाल से
थक जाता मन अगर कभी
तो सागर तट पर  आ जाता
उठती गिरती लहरों संग
मन विह्ल भाव मुस्का जाता
मिट जाता तब सब रीता पन
बहे तरन्नुम का झूला 
फीके फीके मधुकुंजो में भी
खिले सुमन ,मन फूला फूला
करता है प्रयतन पुनह तब
करे दूर  मन की शंकाए
भागीरथ प्रयत्न करे तब
प्राकृतिक कल पुर्जा बन पाए

शनिवार, 15 सितंबर 2012

अंतर्मन की छाया

अंतर्मन की छाया
 
हर इक छाया की छाया में
 हर पल की प्रतिछाया है
कितना भी सुलझा लो  इसको
यह उलझी रहती  माया है
नहीं उजागर होता कोई
दाग भला इसमें पूछो क्यों 
इस छाया से लिपटी हुई
हर  जन की इक काया है 
रात हुई तो सो जाती है 
चदता सूरज झट उठ जाती 
ऊँचा होता मानव जितना 
बढ़  कर आगे निकल जाती है 
 म्ह्त्वान्क्षा मेरी सबकी
अभिलाषा को हर पल दर्शाती
चेतन सुप्त हुई तो भी क्या
अवचेतन मन को झुलसाती
 दंभ इड़ा इर्ष्या की भगिनी
 विषय घृणा, क्रोध बरसाती
अंतर्मन गर हो जो  निश्छल
कुंदन  बन तन को चमकाती