मंगलवार, 31 जनवरी 2012

एक हक़ीकत

पा लिया सब कुछ हमने फिर भी लगता है कुछ कम है
मिली खुशियाँ जमाने भर की फिर भीलगता है कुछ गम है
तलाशते रहे हर लम्हा हर पल हर सू में भटकते रहे
भीड़ है जमाने की  फिर भी लगता है तन्हा कुछ हम हैं

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

फैंसला



फैंसला

फांसलो के बीच छिप कर
बैठा था इक फैंसला
दूरियाँ दिल की बढ़ाता
फ़र्क रिश्तों में वह लाता
मंज़िलो को रास्तों में
तब्दील करता फैंसला
फांसलो के बीच छिप कर
बैठा था इक फैंसला
मुस्कुराहट वक्त की
ढलती रही आंसूओं में
चाँदनी चैत की
ग़लती रही गेसुओं में
हादसों में विश्राम लाता
क्षीणता रह रह कर बुलाता
भावना की चौखत्टओं पर
सांकल लगाता फैंसला
फांसलो के बीच छिप कर
बैठा था इक फैंसला

बदलाव

बदलाव
तड़प उठा था दिल अचानक
भीगी भीगी रातों में
रोया था कितना चुपके चुपके
भटक कर बीती बातों में
आँख से बहता हर आँसू
बिखर रहा था मोटी बन कर
पिघले नयनो से जब दीपक
चमक उठे ज्योति बन कर
बन नील कंठ पिया मन का विष
ग्रस लिया जीवन का राग दंश
चल पड़ा पिलाने प्रेम पीयूष
दीवानो का कर वृहत वंश
इक सबल सुदृड शिष्टाचारी
था घूम रहा  दुष्ककरों में
उन्मुक्त व्योम में फैल गया
बच कर भाग्य के वक्रो से

रविवार, 22 जनवरी 2012

विनती

विनती
गिर ही जाते यूं कट के धरा पर हम
तेरी जो शाखों का सहारा न होता 
भटकते  ही रहते  यूं व्योम में फिर हम 
हो मेहरबान  तुमने जो पुकारा न होता 
जीस्त के राहों में चमकती थी कड़ी धूप
शबनम को तरसती थी तलाशे कोई  रूप 
मिट ही जाते लिए प्यास इन ओंठो पर 
अंजुल में जो तेरे नाम का प्याला न होता  
किस वेश में मिल जाते हो कुछ नहीं मालूम 
किस तेज़ में चमक जाते हो ,कुछ नहीं मालूम 
रहते हो बस साथ मेरे हर दम इक साए से 
बसते हो मेरी साँसों में हर गंध में समाये से
रूक जाती यह साँसे ,जैसे रूकती सी धारा
मिट जाता तब्बसुम ,हर लब का यूं सारा 
ना आते अगर तुम तब बन के सवाली 
मिट जाती थी दुनिया ,दोनों हाथ थे खाली 
हो मेरे दिगंबर ,हो ठाकुर तुम मेरे 
सुमरिन हो तेरा नाम हर पल हर डेरे 
करू कोटि नमन तुमको शत शत प्रणाम 
करो विनती स्वीकार ,बनो मेरा आधार


 

एक अनुभव

एक अनुभव
एक सफ़र था जिंदगी का ...गाडी स्टेशन पर जैसे सिर्फ मेरा इंतज़ार कर रही थी ......बहुत देर तक स्टेशन पर रुकी .. वह मुझे देखती रही और मैं उसे  ...चलने से पहले उसने मुझे फिर आवाज़ दी ...लकिन मैंने अनदेखा किया .....जब बिलकुल चलने को तैयार हुयी तो मुझे भी यकायक ख्याल आया कि क्यों न इसके साथ चल दूं .....तेज़ कदमो से उसकी रफ़्तार से रफ़्तार मिलाने की कोशिश नाकामयाब रही और सहसा कदम लडखडाए और प्लेटफ़ॉर्म पर ही मुझे जमीन की धूल चाटने के लिए छोड़ कर आगे बढ़ गयी ...........कदम ठिठक गये और फिर कुछ हिसाब   करने लगा कि क्या खोया और क्या पाया .......सच है कितना कठिन है आत्म सात कर पाना कुछ पाने ,   कुछ  खोने  का एहसास ....
 

 
 



गुरुवार, 5 जनवरी 2012

तुम क्या जानो

तुम क्या जानो

तुम क्या जानो क्या राज़ छुपा है मेरी इस तन्हाई में
दिल के सारे राज  खुलेंगे आखिर   इस तन्हाई में
तुम क्या जानो क्यों मचले है दिल बहती इस पुरवाई में
गंध तुम्हारी जब छू जाती बदन मेरा पुरवाई में
दिल में तेरा अक्स दिखेगा जब जब बिजली नभ पर चमके
नम होगा यह शोख बदन जब जब बादल से बूंदे बरसें
तुम क्या जानो क्या राज़ छुपा है पूरब  से झरते सोने  में
तुम क्या जानो क्या कौन छुपा है अंतर्मन के कोने में
प्रेम शिखा बन तरपू जब  निशा उतर आँगन में आये
कोंपल बन कर फूट पडूं जब बगिया मैं मधुकर आये
तुम क्या जानो क्या राज छुपा है तुम को रोज़ बुलाने में
तुम क्या जानो क्या राज छुपा है राज को राज बनाने में

मंगलवार, 3 जनवरी 2012

मुक्ति

मुक्ति
घोर निराशा महा काल है
संस्कृति भी कुछ सहमी सहमी
गुज़र रहा संकट में मानव
दिन में फैला निशा काल है
धूमिल होते शिष्टाचार  अब
तम के गर्भ में सुप्त पड़े हैं
अनाचार के सर्प भयंकर
डसने को तैयार खड़े हैं
प्यार वफा कसमे वादे
छिप गये  मन के तालो में
उलझ रहा है जीवन आँचल
वैमनस्य के पलते जालो में
राग द्वेष की  चादर काली
पहन के बैठा तन कर मानव
विस्मृत देव तुल्य सब गुण
बन बैठा अब भयानक दानव
दुखिया सब संसार हुआ है
टेर रहा माधव को फिर से
धर कर मोहिनी रूप जो अब फिर
मुक्त करे इस भस्मासुर से

दर्शन ..ठाकुर का

दर्शन ..ठाकुर का
जल तरंग से उठते गीतों ने
तुम को आज पुकारा फिर है
आँखों के चमकीले दर्पण में
तुम को आज निहारा फिर है
सोचा थोडा रूक जायूं
वक़्त से पहले थम जाऊं
मदमाती इस मस्त हवा में
थोडा और मैं रम जाऊं
कमल नयन सांवल छवि तेरी
भर लूं आँचल में  अपने मैं
जी उठी  अभिलाषा  जीने की
जी लूं थोडा जी  भर कर मैं
रूकने को तो मैं रूक जाता
थोडा चैन कहीं तो पाता
वक्त के दामन में जो जकड़ा
पर क्या ऐसा  कर पाता मैं ?
किंकिन सुंदर नुपुर धवनि सुन
पावों में  थिरकन जागी थी
चिर कालो से विक्षिप्त तंत्रा
साथ छोड़ पल में भागी थी
वक़्त बुरा था याँ था अच्छा
जैसा भी था तुझे समर्पित
अर्चन कर जोड़े फिर करता
सर्वस्व मेरा हो तुम को अर्पित

रविवार, 1 जनवरी 2012

अंतर्मन !


अंतर्मन !
कहते है मन का बौना पन 
करता संकुचित इस जग को 
जो खुद पंगु हो बैठा है 
करता है कंटक मय पग को 
बिखरे राहों में  मोती हैं 
चलूँ उनको झोली में भर लूं 
कल कल कर बहता समय का नद  
चल कर अन्जुल में भर लूं 
यह क्षितिज सजा है मेरे लिए 
सजे वंदन वार हैं मेरे लिए 
इस धरनी का कोना कोना 
करता गुंजन बस  मेरे लिए
अब स्वछंद हवायों में जी लूं 
उन्मुक्त गगन को तो छू लूं
यह जग तो सारा विषमय है 
उन्माद का अमृत ही पी  लूं