सागर का तट और लहरें
शांत जलधि की चंचल लहरें
तट पर आती बारम्बार
उजड़े रूखे,सूखे तट को
नम कर जाती हैं हर बार
भर लेने को अपने आँचल में
करती हैं प्रयास निरंतर
लेकिन देख तट की तटस्थता
सिमट कर छुप जाती हर बार
निर्विकार तट देख उठे जब
सागर अंतस में भूचाल
नन्ही प्यारी चंचल लहरें
धरें सुनामी रूप विकराल
मर्यादा के तोड़े बंधन
भर ले आगोश में तट विशाल
उच्श्रीन्ख्ल लहरों को जबरन
रोक ना पाए सागर मराल
मंगलवार, 30 नवंबर 2010
सोमवार, 22 नवंबर 2010
maafi aur dost
माफ़ी और दोस्त
मेरे हर गुनाह को वह देता है माफ़ी
नहीं होने देता कभी नाइंसाफी
आंसू ना बहने पाए मेरी आँखों से
इसके लिए उसकी ही आँखे हैं काफ़ी
ओढ़ के चादर वह मेरे गुनाहों की
सजा वह मेरे हिस्से की भुगतता है
चुन चुन के कंकर वह मेरी राहों के
सुगमता की कलियाँ हर पल बिछाता है
वह कोई नहीं बस है दोस्त मेरा
दमकते सूर्य से जैसे रौशन सवेरा
वह तन्हा सफ़र में हमसाया मेरा
अनाथो की बस्ती में जैसे बसेरा
मेरे हर गुनाह को वह देता है माफ़ी
नहीं होने देता कभी नाइंसाफी
आंसू ना बहने पाए मेरी आँखों से
इसके लिए उसकी ही आँखे हैं काफ़ी
ओढ़ के चादर वह मेरे गुनाहों की
सजा वह मेरे हिस्से की भुगतता है
चुन चुन के कंकर वह मेरी राहों के
सुगमता की कलियाँ हर पल बिछाता है
वह कोई नहीं बस है दोस्त मेरा
दमकते सूर्य से जैसे रौशन सवेरा
वह तन्हा सफ़र में हमसाया मेरा
अनाथो की बस्ती में जैसे बसेरा
samjh, nasamjh
समझ - नासमझ
कभी कभी समझ भी इतनी नासमझ हो जाती है कि
समझ कर भी असमंजस मे ही रहती है
और कभी कभी नासमझ इतनी समझदार हो जाती है कि
नासमझ कर भी समन्वित ही रहती है
एक झिर्री का फांसला है इन दोनों के दरम्यान
पता ही नहीं चलता कि
समझ कब नासमझ और नासमझ कब समझदार हो जाती है
कभी कभी समझ भी इतनी नासमझ हो जाती है कि
समझ कर भी असमंजस मे ही रहती है
और कभी कभी नासमझ इतनी समझदार हो जाती है कि
नासमझ कर भी समन्वित ही रहती है
एक झिर्री का फांसला है इन दोनों के दरम्यान
पता ही नहीं चलता कि
समझ कब नासमझ और नासमझ कब समझदार हो जाती है
रविवार, 21 नवंबर 2010
Swarth ka astitv
स्वार्थ का अस्तित्व
कल्पना के आकाश से
देखा जब धरातल यथार्थ का
फटा था आँचल भोली ममता का
बस फैला था दामन स्वार्थ का
देखा मानव को चोट पहुंचाते
सब से ऊपर
देखा जीवन को रोते अकुलाते
भीतर ही भीतर
देखा अपनों को रूप बदलते
हर इक पल में
देखा बेगाने कैसे बनते अपने
केवल इक छल से
देखा सोच को होते संकुचित
जीवन दौड़ में
देखा प्यार को रोते सिसकते
हर इक मोड़ पे
क्या यही है यथार्थ
कि कामनाओं की क्षुधा
शांत करता हुआ हर व्यक्ति
चन्दन में लिपटे भुजंग जैसा
मन में लिए बैठा है स्वार्थ.
कल्पना के आकाश से
देखा जब धरातल यथार्थ का
फटा था आँचल भोली ममता का
बस फैला था दामन स्वार्थ का
देखा मानव को चोट पहुंचाते
सब से ऊपर
देखा जीवन को रोते अकुलाते
भीतर ही भीतर
देखा अपनों को रूप बदलते
हर इक पल में
देखा बेगाने कैसे बनते अपने
केवल इक छल से
देखा सोच को होते संकुचित
जीवन दौड़ में
देखा प्यार को रोते सिसकते
हर इक मोड़ पे
क्या यही है यथार्थ
कि कामनाओं की क्षुधा
शांत करता हुआ हर व्यक्ति
चन्दन में लिपटे भुजंग जैसा
मन में लिए बैठा है स्वार्थ.
शनिवार, 20 नवंबर 2010
mujh ko bhool jana
मुझ को भूल जाना
कुछ पाना और फिर कुछ पा कर खो जाना
न समझेगा समझ कर भी यह दर्द वह दीवाना
कहना मुस्कुरा कर यूं कि 'मुझ को भूल जाना'
बन जाये न सबब तन्हाई में मेरा आंसू बहाना
हो ना पायेगा अब मुझसे इस कदर वह कह्कहाना
हँसना वह हर बात पर और बेवजह ठहाके लगाना
जब कभी भी आयोगे सामने तुम याद बन कर
उठेगी टीस दिल में ,ढह उठेगा दिल का आशिआना
कुछ पाना और फिर कुछ पा कर खो जाना
न समझेगा समझ कर भी यह दर्द वह दीवाना
कहना मुस्कुरा कर यूं कि 'मुझ को भूल जाना'
बन जाये न सबब तन्हाई में मेरा आंसू बहाना
हो ना पायेगा अब मुझसे इस कदर वह कह्कहाना
हँसना वह हर बात पर और बेवजह ठहाके लगाना
जब कभी भी आयोगे सामने तुम याद बन कर
उठेगी टीस दिल में ,ढह उठेगा दिल का आशिआना
badlaav jeevan ka
बदलाव जीवन का !!!
कितनी सरलता से कह दिया हम ने हवायों को
भूले से भी न गुजरे कभी अब वह मेरे आँगन से
यूं कर दिया आगाह हमने इन नभ फिजाओं को
न इठलायें कभी अब वह मेरे मन के उपवन में
बदलते मौसमों का स्पर्श जबरन छू ही जाता है
चाहे रहो संभल कर दूर जीवन की बदलन से
कितनी सरलता से कह दिया हम ने हवायों को
भूले से भी न गुजरे कभी अब वह मेरे आँगन से
यूं कर दिया आगाह हमने इन नभ फिजाओं को
न इठलायें कभी अब वह मेरे मन के उपवन में
बदलते मौसमों का स्पर्श जबरन छू ही जाता है
चाहे रहो संभल कर दूर जीवन की बदलन से
chalo bane anjaan
चलो बने अनजान
रिश्तें बेतकुल्लफ के जिए यूं बहुत देर हम ने
चलो बार फिर से एक हम अनजान हो जाएँ
गुजारें है मधुर वो पल जो साथ साथ हमने
चलो बार फिर से एक वह बस अरमान बन जाएँ
बहा हर आँख से कतरा- ए - शबनम का मेरे ए दोस्त
हम दोनों के एक ख्वाब की पहचान बन जाये
हो जब कभी भी सामना गुजरते यूं दरीचों में
तुम्हारा अक्स मेरे दर्द- ए- जिगर का मेहमान बन जाये
रिश्तें बेतकुल्लफ के जिए यूं बहुत देर हम ने
चलो बार फिर से एक हम अनजान हो जाएँ
गुजारें है मधुर वो पल जो साथ साथ हमने
चलो बार फिर से एक वह बस अरमान बन जाएँ
बहा हर आँख से कतरा- ए - शबनम का मेरे ए दोस्त
हम दोनों के एक ख्वाब की पहचान बन जाये
हो जब कभी भी सामना गुजरते यूं दरीचों में
तुम्हारा अक्स मेरे दर्द- ए- जिगर का मेहमान बन जाये
गुरुवार, 11 नवंबर 2010
stree se
स्त्री से
क्यों बन कर लता
ढूँढती हो
किसी वृक्ष का सहारा
हो स्वयं तरुवर
जुड़ना जिस से चाहे
यह उपवन सारा
क्यों बन लहर
चाहती हो हर पल एक किनारा
हो बल्ग्य इतनी
बहो बीच सागर
बन नील धारा
ना मांगो किरण
तड़प कर यूं
सूर्य से तुम
असमर्थ है वह खुद भी
झेलने को तेजस तुम्हारा
क्यों बन कर लता
ढूँढती हो
किसी वृक्ष का सहारा
हो स्वयं तरुवर
जुड़ना जिस से चाहे
यह उपवन सारा
क्यों बन लहर
चाहती हो हर पल एक किनारा
हो बल्ग्य इतनी
बहो बीच सागर
बन नील धारा
ना मांगो किरण
तड़प कर यूं
सूर्य से तुम
असमर्थ है वह खुद भी
झेलने को तेजस तुम्हारा
Satta ka upbhog
सत्ता का उपभोग
मौन शब्द
हुए स्तब्ध
देख सत्ता
का प्रारब्ध
धन लोलुपता
काम भ्रष्टता
शर्मसार हुई
कर्म महत्ता
शक्ति सुयोग
हुआ दुरप्रयोग
वाह रे रक्षक
कैसा नियोग?
मौन शब्द
हुए स्तब्ध
देख सत्ता
का प्रारब्ध
धन लोलुपता
काम भ्रष्टता
शर्मसार हुई
कर्म महत्ता
शक्ति सुयोग
हुआ दुरप्रयोग
वाह रे रक्षक
कैसा नियोग?
मंगलवार, 9 नवंबर 2010
tumhaari aawaaz
तुम्हारी आवाज़
जैसे दूर पहाड़ी के पीछे
बजती वंशी की मीठी धुन
याँ फिर कमलन दल पर डोलते
मंडराते भ्रमरों की गुन-गुन
जैसे साग़र के सीने से उठे
तरंगों का कोई शोर
याँ फिर नभ में घिरी घटा को
देख कर बोल कोई मोर
जैसे झरनों की झर-झर से
निकला हुआ कोई संगीत
याँ फिर सनन सनन हवाओं का
बजता हुआ कोई गीत
जिसको सुन कर किसी का भी
दिल हो जाये बेकाबू
ऐसा है तुम्हारी
सुरमई आवाज़ का जादू
जैसे दूर पहाड़ी के पीछे
बजती वंशी की मीठी धुन
याँ फिर कमलन दल पर डोलते
मंडराते भ्रमरों की गुन-गुन
जैसे साग़र के सीने से उठे
तरंगों का कोई शोर
याँ फिर नभ में घिरी घटा को
देख कर बोल कोई मोर
जैसे झरनों की झर-झर से
निकला हुआ कोई संगीत
याँ फिर सनन सनन हवाओं का
बजता हुआ कोई गीत
जिसको सुन कर किसी का भी
दिल हो जाये बेकाबू
ऐसा है तुम्हारी
सुरमई आवाज़ का जादू
शुक्रवार, 5 नवंबर 2010
intzaar
इंतज़ार
सपना सजाया मैंने जाने कितनी बार
निष्ठुर जोगी तुम ना आए एक बार
राहों में जूही के सुमन बिछाए
दिनकर की किरणों से रौशन कराये
पलकों से पंथ बुहारा कई बार
रात की मांग मैंने चंदा से सजाई
झिलमिल तारों की चूनर ओढाई
घुंघटा ना खोला ना निहारा एक बार
निश्छल प्रेम की मैंने भसम रमाई
क्यों नहीं तुमने मेरी सुधि पायी
जनम जनम तेरा करूं इंतज़ार
सपना सजाया मैंने जाने कितनी बार
निष्ठुर जोगी तुम ना आए एक बार
राहों में जूही के सुमन बिछाए
दिनकर की किरणों से रौशन कराये
पलकों से पंथ बुहारा कई बार
रात की मांग मैंने चंदा से सजाई
झिलमिल तारों की चूनर ओढाई
घुंघटा ना खोला ना निहारा एक बार
निश्छल प्रेम की मैंने भसम रमाई
क्यों नहीं तुमने मेरी सुधि पायी
जनम जनम तेरा करूं इंतज़ार
सोमवार, 1 नवंबर 2010
bikhre moti chunega kaun?
बिखरे मोती चुनेगा कौन?
बंद पलक जो बुने थे सपने
खुली पलक वह हुए ना अपने
अपनों से अब मिलेगा कौन
टूटे सपने बुनेगा कौन?
कह लेते थे दिल की बातें
आँखों से जब होती बरसातें
अब दिल की बातें सुनेगा कौन?
अश्रु आँखों के पौंछेगा कौन?
जैसे सागर तट पर मोती बिखर गये
वैसे हम तुम दोनों बिछड़ गए
अब बिछड़ों से मिलेगा कौन?
बिखरे मोती चुने गा कौन?
बंद पलक जो बुने थे सपने
खुली पलक वह हुए ना अपने
अपनों से अब मिलेगा कौन
टूटे सपने बुनेगा कौन?
कह लेते थे दिल की बातें
आँखों से जब होती बरसातें
अब दिल की बातें सुनेगा कौन?
अश्रु आँखों के पौंछेगा कौन?
जैसे सागर तट पर मोती बिखर गये
वैसे हम तुम दोनों बिछड़ गए
अब बिछड़ों से मिलेगा कौन?
बिखरे मोती चुने गा कौन?
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