जरा सोचिये !!!!
कितना व्यस्त जीवन है . प्रत्येक कार्य के लिए दिन और समय पहले से ही निशित कर के रखना पड़ता है. कही भी किसी कार्यालय में किसी अधिकारी से मिलने जाओ तो मुलाकात का समय अगर पहले से निश्चित है तो आप को मिलने का अवसर मिलेगा वरना आप चाह कर भी नहीं मिल सकते . यहाँ तक कि इलाज़ करवाने के भी डाक्टर के पास मुलाकात का समय निश्चित करना पड़ता है कई बार ऐसा भी होता है कि डाक्टर से वक़्त तय नहीं हो पाया और मौत बिना किसी इजाज़त के आप की जिंदगी में प्रवेश कर जाती और आप को अपने साथ लेजाती है .
जरा सोचिये ....
अपने मित्रों ,सगे सम्बन्धियों , बच्चों और यहाँ तक कि जीवन साथी से मिलने के लिए भी वक़्त की तलाश करनी पड़ती है .
कितने प्रगतिशील हैं हम ?
मुलाकात का वक़्त तय करने का भी कभी समय नहीं होता. इस लिए सर्वसम्मति से कुछ दिन तय कर लिए
शायद वैलन्ताईन डे भी इसी का उदहारण है
अपने प्यार को याद करने और करवाने के लिए , इस प्यार का एहसास करने और करवाने के लिए किसी ख़ास दिन का सहारा लेना पड़ता है
क्यों नहीं जिंदगी का हर पल वैलन्ताईन डे हो सकता .?
क्यों प्यार किसी पल का मोहताज़ हो गया है ?
मानव क़ी भावनाओं का भी मशीनीकरण क्या एक ठोस समाज और मानव के कोमल मन को संतुष्ट कर पायेगा ?
जरा सोचिये ?
कितना व्यस्त जीवन है . प्रत्येक कार्य के लिए दिन और समय पहले से ही निशित कर के रखना पड़ता है. कही भी किसी कार्यालय में किसी अधिकारी से मिलने जाओ तो मुलाकात का समय अगर पहले से निश्चित है तो आप को मिलने का अवसर मिलेगा वरना आप चाह कर भी नहीं मिल सकते . यहाँ तक कि इलाज़ करवाने के भी डाक्टर के पास मुलाकात का समय निश्चित करना पड़ता है कई बार ऐसा भी होता है कि डाक्टर से वक़्त तय नहीं हो पाया और मौत बिना किसी इजाज़त के आप की जिंदगी में प्रवेश कर जाती और आप को अपने साथ लेजाती है .
जरा सोचिये ....
अपने मित्रों ,सगे सम्बन्धियों , बच्चों और यहाँ तक कि जीवन साथी से मिलने के लिए भी वक़्त की तलाश करनी पड़ती है .
कितने प्रगतिशील हैं हम ?
मुलाकात का वक़्त तय करने का भी कभी समय नहीं होता. इस लिए सर्वसम्मति से कुछ दिन तय कर लिए
शायद वैलन्ताईन डे भी इसी का उदहारण है
अपने प्यार को याद करने और करवाने के लिए , इस प्यार का एहसास करने और करवाने के लिए किसी ख़ास दिन का सहारा लेना पड़ता है
क्यों नहीं जिंदगी का हर पल वैलन्ताईन डे हो सकता .?
क्यों प्यार किसी पल का मोहताज़ हो गया है ?
मानव क़ी भावनाओं का भी मशीनीकरण क्या एक ठोस समाज और मानव के कोमल मन को संतुष्ट कर पायेगा ?
जरा सोचिये ?