मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

sankalp

 संकल्प

जीवन की दल-दल से जितना भी मैं बचता
धंस जाता हूँ हर बार उनमे   उतना ही  गहरा
गिर कर उठता , उठ  कर हर बार संभल  जाता 
मन्त्र यही कि सड़ ही जाता है पानी ठहरा !

आशा की रौशन किरणों से
रोज़ सवेरा जगमग होता
दिनभर की फिर हार-जीत में
रोज़ संध्या से धूमिल होता
हार-जीत के संघर्षो से   जितना भी  बचता
फंस जाता हूँ हर बार उनमे   उतना  गहरा
तज शंका, प्रयत्नों में, मैं लग जाता
मन्त्र यही कि प्रयत्न विफलता का कड़ा पहरा !!

आशंकित होता है हर बार उठने वाला पग
नैया होगी सागर के सीने पर   डग-मग
पाल और पतवार पुराना ,दूर कूल है
यही नियति है  ,क्यों मैं मानू,  क्या नही भूल है?
शंका की उठती लहरों से जितना भी  बचता
अटका जाता उन लहरों  में,  उतना ही  गहरा
विश्वासित हो कर लड़ता जब उन लहरों से
मन्त्र यही कि संकल्प सदा शंका  पर है लहरा  !!!