शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

krishak

कृषक
माथे पर छलके नन्हे स्वेद कण
चमके जैसे सुंदर मणियाँ
धरती पर गिरते मोती बन कर
खिलते जैसे स्वर्ण बालियाँ
गेंहूं बाजरा भुट्टा चावल
लहलहाते खलिहान प्रति पल
माटी में माटी सा हो कर
कड़ी  धूप में देता जीवन जल
सच है कृषक है पोषण करता
ऊँचा है मानव में दर्जा
इस धरती का पालनहार
सब लोगो की भूख को हरता
पर हाए! भाग्य है उसका खोटा
सदा सूद का बोझा ढोता
क्या कभी विचारा है हम सब ने
क्यों बेचारा किस्मत को रोता ?