गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

Rukhsati

रुखसती 

ले लूँ  गर रुखसती मैं इस जहाँ से आज 
क्या करोगे याद  मुझको  तब भी  
या भूल जाओगे   किसी टूटे सितारे से  ?
 बिछड़  जाए  गर नदी अपने ही धारों से
 क्या बहोगे  तब भी  रवानी से 
या बिखर जाओगे किसी बिछड़े किनारों  से
धंस भी जाये गर धरा ,अपने ही बोझों से
क्या रहेगी तब भी सत्वर
याँ चटक जाये गी किसी उजड़े नजारों से
थम नहीं जाता चलन यह जीव का
बूँद दो आंसू बहेंगे  , फूल दो शव पर चढ़ेंगे ,
चंद जन फिक्रें कसेंगें , और फिर वह सब करेंगे
ढूँढने को अस्तित्व अपना इस जहां में
रूक के पल दो पल फिर आगे बढ़ेंगे