मंगलवार, 31 मई 2011

Daastan


दास्ताँ 
वह  दर्द बैठा था किसी कोने में यूं छुप कर 
भरी अंजुली में जैसे छिपा आफताब हो जैसे 
है कोसो दूर  फिर भी छूता है  बेबाक हर कोना 
दिया हो सृष्टि ने तोफहा मुखालिफ हो भले  या ना 

जगमगा उठे भले ही  जुगनू लाख इस  तम में 
श्यामिल ही बनी रहती है काली रात यूं नभ में 
तमस का चीर कर आँचल बरसती हैं सुनहरी जब 
झकझोर देती है और देती है सदायें यह मन में 

होता अगर कही कोई दुनिया में शहर  जुदा सा 
 तो कर लेते हम भी बस  यूं ही निभाह अपना 
होता गर कही  कोई दुनिया में  दैरो हरम अपना  
तो कर लेते बसर  हम भी बना कर  आशियाँ अपना