दास्ताँ
वह दर्द बैठा था किसी कोने में यूं छुप कर
भरी अंजुली में जैसे छिपा आफताब हो जैसे
है कोसो दूर फिर भी छूता है बेबाक हर कोना
दिया हो सृष्टि ने तोफहा मुखालिफ हो भले या ना
जगमगा उठे भले ही जुगनू लाख इस तम में
श्यामिल ही बनी रहती है काली रात यूं नभ में
तमस का चीर कर आँचल बरसती हैं सुनहरी जब
झकझोर देती है और देती है सदायें यह मन में
होता अगर कही कोई दुनिया में शहर जुदा सा
तो कर लेते हम भी बस यूं ही निभाह अपना
होता गर कही कोई दुनिया में दैरो हरम अपना
तो कर लेते बसर हम भी बना कर आशियाँ अपना