सोमवार, 30 अप्रैल 2012

दर्द का व्यापार

दर्द का व्यापार
दे  ही देते हम उसे
जो ले कभी हम से उधार
जिंदगी एक दर्द है
कर ही  ले इस का व्यापार
बदगुमानी थी बहुत
कि याद उनको आयेंगे
रास्ते जो गये बिछड़
किसी मोड़ पर टकरायेंगे
नफरतों के झाड़ थे
कैसे भला उगता यह प्यार
शुष्क था दिल का समुंदर
अब भला कैसा ज्वार ?
कंठ है अवरुद्ध  ज्यों
भावना के इश्तहार  
नीर जो  बहते नयन से
दर्द को जाते पखार
बिक ही जाए यह कभी
अब नकद याँ  कल उधार
चार दिन की जिंदगी में
दर्द भी कब है बेकार ?

नाम

नाम
बदली क्या तुम ने नज़र
दिन बदलते ही रहे  
मील के पत्थर सभी  
रास्ते बनते रहे
मुस्कुराये शूल तब
फूल बन खिलते रहे
उमड़ते दरिया सभी
सुगम से झरते रहे 
 जुगनुओ के दीप थे
टिमटिमाते ही रहे
मिल गया जो नाम के
तेरे मुझे ऐसा स्पर्श
नागमणि सी बाम्बियों में
जगमगाते ही रहे

रविवार, 22 अप्रैल 2012

जानती हूँ

जानती हूँ 
हो यहीं
कही आस पास
ना देते दिखाई
ना देते सुनायी
महसूसा  है तुम्हे
हर श्वास में
हर आस में
हर घटना में
हर एहसास में
जानती हूँ
हो यही
कुछ आस पास
रूह में ,ख़याल में
मेरे हर सवाल में
जवाब में प्रत्यक्ष हो
मुश्किल में दक्ष हो
जानती हूँ
हो यही
कुछ आस पास

एक वक्तव्य

एक वक्तव्य

वक्त ने कहा वक्त से
चलो अभी वक्त है
कहा वक्त ने वक्त से
नहीं अभी नहीं वक्त है
जद्हो जहद बढती रही
रस्साकशी चलती रही
वक्त की इन सगर्मियों में
खूब बहा वक्त भी
थक गया रूक गया
खूब सहा वक्त भी
 वक्त की चेतना
वक्त की अवहेलना
वक्त की बरबादियाँ
वक्त की आबादियाँ
वक्त की सरहदों पर
वक्त का आभास है
वक्त को जीत लो
वक्त का अभाव है

लगता है जैसे कल की बात हो

लगता है जैसे कल की बात हो
उन्नत माथे  पर चमकता सिंदूर , आत्म  गौरव से दपदप दमकता मुख..जैसे सूरज के तेज़ भी मद्धम से पड़ने लगा हो, बंद आखो से छलकते वात्सल्य के स्त्रोत और गुलाब की कली से बंद लब जैसे मौन आशीर्वचनो की झड़ी लगा रहे हो ..आखिरी वक्त का यह दर्शन आज भी आखो के बंद दीपों में झिलमिलाता  है किसी दिवा स्वप्पन की तरह .
मैं उन दिनों DISA  के एक्साम के तैयारी में व्यस्त थी. . रोज़ कहती थी बस खूब पढो ..और बबुत बड़े बनो .. आज उनका स्वप्पन पूरा हुआ जैसे.
शायद मैं उनकी  आँखों  में बसे उस सपने को जो उन्हों ने मेरे लिए देखा था आज पूरा करने में कामयाब हो पायी .दस बरस पूर्व मेरे जुड़वाँ बच्चो  के कारन मैंने अपने ऑफिस में इस्तीफ़ा  दिया  था तो सब से ज्यादा  व्यथित उन्ही को देखा था . बड़ी दबी आवाज़ में उन्होंने मेरे पिताजी से कहा की इतनी होशिआर बच्ची ...पता नहीं अब कभी उभर  भी पायेगी की नहीं........२००५ में में फिर से अपने करीअर पर ध्यान  देना शुरू किया और POST QUALICATION COURSE  पास किया. इसी बीच उनका अचानक देहावसान हुआ. लेकिन मुझ पर तो जैसे एक ही धुन सवार थी. अपने आप को उस जगह  पहुचाना जहा मेरी माँ ने मेरे होने की कल्पना की थी. एक स्वप्पन  मेरे लिए उनकी आँखों में था . मुझे परेशान  देख कर बस यही कहती थी "मुन्नी तू  बहुत संतोष वाली लड़की है .तुझे भगवान् ने बहुत देना है" आज उनके आशर्वाद का परिणाम है की में अपनी उस मंजिल पर चरण रख पायी हूँ जिसकी जीते जी मेरी माँ ने कल्पना की थी.
उनके जाने के ६ वर्षों बाद में उनका सपना साकार क्र पायी .
खुश तो वह अवश्य होंगी जहा भी होंगी.........और आज उनके जाने के ६ वर्ष बाद ही मेरे आँख से आंसू उनकी याद में आखो से ढुलक रहे है जो उनके वात्सल्य को पुकारते उनको श्रधान्जली दे रहे है ..............माँ तुम मेरा जीवन आधार हो हमेशा मेरे साथ थी  और मेरे साथ रहोगी...
चरणस्पर्श .....
माँ का जाना ( माँ की पुण्य स्मृति में )
 जान  चुका  मन जिसको अपना
देखो !आज हुआ बेगाना
वक्त ने जैसे तेवर बदले
पिघल उठा  मन का  वीराना
मुस्काता इतराता पतझर
रुष्ट हुआ मधुमास बहार
फूलो की मधरिम शैया पर
शूलो की  उन्मुक्त कतार
सागर का अंतस अब सूखा
नीरद का अस्तित्व है रूखा
मरू के रेतीले टीलों  पर
मन बना कंटीला झाड अबूझा
दिया दर्द का पीर की बाती
जले मनमंदिर में दिन और राती
सूनी आँखे गमन निहारे
हर अश्रु तेरा नाम पुकारे
बिलख बिलख कर रोता रोदन
करता है तेरा अनुमोदन
हुआ श्वास से वंचित जब तन
वैकुण्ठ में निवस गया मन
तुम बिन जीवन निष्ठुर है मां
क्रुद्ध विरोध जलन की ज्वाला
आँचल के तेरे आज भी छईया
पीयूष करे जीवन की  हाला


और तेरा वजूद

और तेरा वजूद

कभी साथ हमको  ना मिला
कभी छल किया मुकद्दर ने
हर मोड़ पर था तम  पडाव  
ता उम्र   जिंदगी छलती रही
मिला जो अब कभी तू तो
सोचा   कह ही  डालेंगे
 वो अलफ़ाज़ जिसकी रूह
 मेरे साथ गुनगुनाती  रही
रूक जाते कभी यह पग
चल कर दो -चार  कदम
अनुभूति तेरी अस्मित की
 मेरे साथ जगमगाती रही 
जाने कौन सा लम्हा
मुझे तुम तक मिलाता है
भावित  सुरभियाँ मन की
मेरे साथ मुस्कुराती रही 

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

खुद से मिल तो लेती मैं

खुद से मिल तो लेती मैं 
 
मिल ही लेती खुद से  मैं
बाद तेरे जाने के
फुसफुसा कर कान में
चुपके से कहती यह हवा
मिल ही  लेती खुद से मैं
तेरा आना ,चले जाना 
चुपके चुपके यूं  मिलना
मिल कर फिर बिछड़ जाना
आहट बन कर आ जाना
और बे आहट चले जाना
धड़कन में बसे रहना 
जीवन से चले जाना 
सागर में उठती लहरे  
भीगे तट को छू कर जब 
रीते मन से जाती हैं 
धारो से पुनह मिलने 
मन ही मन में कहती हूँ 
 खुद से मिल तो लेती मैं 
 
 

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

तन्हाई

तन्हाई
तन्हाई आवाज़ देती है
फिर बुलाती है
कितनी हो गयी तन्हा
कह कर गले  लगाती है
तन्हाईयों  को खींच कर
तन्हा छुपाती है
डर ना जाए यह कही
तन्हा इरादों से कर
तन्हाईयों को भींच कर
उर में छुपाती है
हो दफ़न ना आवाज़
इसकी इस वीरानी से
खामोशियों के बीच
कोलाहल मचाती है

 

भोर का तारा

भोर का तारा
सांझ ढले अम्बर प्रांगन में  
चमक रहा था भोर का तारा
खोज रहा था रश्म सुनहरी
नभ में उल्टा लटका सारा
निशि और दिन के सत्वर सच को
निगल  रहा था सब का प्यारा
शून्य विज़न में एकाकी सा
सींच रहा था दर्द किनारा
अम्बर  घट के अंकुर फूटे
मधुकर ने भी मोती लूटे
विस्मृत परछाईयों के पंख
अस्तव्यस्त हो बिखर कर टूटे
बाट संजोता रहा भोर की
टिम टिम रात भर करता तारा  
भोर हुई तो क्षीण हो गया
दिनकर रश्म से भोर का तारा
तन्हाईयों में भीग चला  था
तन्हाईयों  से रीत चला  था
संग सुझाता था जो जग को
तन्हाईयों में बीत चला था
करता हूँ प्रयतन मैं  भरसक
ख़ोज रहा बन कर बंजारा
सहज रूप है  मेरा उसमें  
चमका बन कर भोर का तारा
 
 
 

शनिवार, 14 अप्रैल 2012

खिन्नता

खिन्नता
सदियों से उसे यूं  ही बुलाता रहा मैं
जो पास छिपा बैठा था दिल के दरीचों में
आया था कभी जीवन में  जो बन  के मसीहा
अब रोज़ शिकस्त जान को देने सा लगा है
नावाकिफ रहता था जो रस्मो रिवाजों से
जालिम है हर रस्म निभाता है जतन से
मिट जायेंगे सब ख़ाक में  यादों के घरोंदे
रेत के महलों के कभी गुम्मद नहीं होते

आह्वान

आह्वान

तार झनझना उठे
गीत गुनगुना उठे
मिल गई जो मंजिलें
दीप झिलमिला उठे
लिए स्वप्पन जन्म जो
सब प्रफुल्लित  हो उठे
खिल गये मन सुमन
पथ सुगन्धित हो उठे
रश्मिया चमक उठी
उन्नत  है मन ललाट
गमक गमक तरंगिनी
समय की देखती है बाट
अदृश्य भय से डरा
मन के द्वार जो खड़ा
वह काल है अतीत का
ठिठुर सिकुड़ कर बढ़ा
उठे  जो पग रुके नहीं
बड़े कदम मुड़े नहीं
मंजिले जो मिल गई
वह रास्ते बने नहीं
चलो चलो चलो चलो
श्रम कुदाल ले बढ़ो
पंथ है प्रशस्त अब
स्वर्ण काल में गढ़ों


वक्त कहा है ?

वक्त कहा है ?
नभ पर  चमकते  भोर के तारे ने टिमटिमा कर  सुबह होने का ऐलान किया . उषा की सुनहरी किरन अपना जाल फैलाने को तैयार हो गयी
विहग वृन्द का कलरव उषा गान करने लगा .रात भर शबनम की बूंदों  से भीगी वनस्पतियाँ पुनह अपना रस बरसाने को उद्यत हो उठी .
सब तरफ गतिशीलता नव आवरण ओढ़ गतिमान हो उठी .काल स्वयं नव रथ पर आरूढ़ हो कर भ्रमण करने निकल पड़ा 
जल थल नभ की गतिशीलता जैसे मानव को  उसके  गति हीन होने का एहसास करा रही थी . चाह कर भी आलस्य के चादर से नहीं निकल पा रहा था . वक्त था कि कही थमने का नाम नहीं ले रहा था . सरपट सरपट दौड़ रहा था......आकाश में ...आदि में....अंत में......अनंत में....
और मानव आलस्य के चादर ओढ़े , ऊंघता , सूंघता ,रोता बिलखता और कभी हँसता खिलखिलाता , अपनी खीसे निपोरता बस यही सोचता है और गुहारता है कि "वक्त कहा है "
.

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

दर्द

दर्द

हर दर्द किसी दर्द से बड़ा होता है

दर्द कही है इस का दर्द कहा होता है

ना सोचेंगे तो होगा ना दर्द का दरिया

दिल के किनारों पर ही दर्द जमा होता है

दर्द जो तड़प उठे वोह दर्द कहा है

दर्द ने भी दर्द का हर बोझ सहा है

बह निकला जब तोड़  बाँध दिलों के

दर्द भी दर्द के हर  आंसू में बहा है

जो बात मैं कह दू तो दर्द बने है

जो बात में सुन लू तो दर्द बने है

करे अनुभव जिसे यह दिल वह  दर्द बड़ा है

दिल के किनारों पे तो दर्द खड़ा है





गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

प्रयत्न

प्रयत्न  
शब्दों का कोलाहल लो फिर हुआ मौन
मनघट के देहरी  से यह झाँक रहा कौन
उत्सव है यादों का  अम्बर तक मेला है
शिशिरों  के मौसम में वसंत का रेला है
रह रह कर बहते हैं मुग्ध हए नैन
न्योता है मंगल मय रीझ उठे बैन
किंकिन से नुपूरों की गुंजित मधुशाला है
मन के दौराहे की अब निशित पग शाला है
रुष्ट हुये झंझावात ,दिनकर की शक्ति से
मन के आये मीत जो तुम निश्छल भक्ति से
द्वारों के वन्दनवार कोकिला सजाती है
आस युक्त उत्कंठा दूर खड़ी लजाती है
आये जो अब तो ना जाने पायोगे
मंजिल पर धरे जो पग अब ना लड़ खडायोगे
खोल द्वार प्राची के अरुणिमा सजा लो अब
तप्त सुप्त स्वप्प्नो को फिर से जगा लो अब
गीत मधुर वासंती फिर धरा में गूंजेगे
भागीरथ प्रयत्नों को फिर से सब पूजेंगे


 

रविवार, 8 अप्रैल 2012

हर्ष का शंख

हर्ष का शंख
 
ना बनते है ना मिटते है
ख्यालों के यह बादल अब
ना उमड़ते है, ना झरते है
भावों के यह दरिया अब
सूखा अब  समुंदर है ,
मरू की रेत सा रूखा
बरसता ज्वाल आँखों से
धधकता उर हुआ   भूखा
तड़प की बूँद बाकी है
करती है हवा को नम
गगन के गीत गीले हैं
हैं बोझिल धरा का मन
सच का सत्य है कडवा
कल्पना मौन बैठी है
सृजन की तूलिका का स्वर 
किये अब गौण बैठी है 
सपने में है धुंधला पन 
बहारों को बुलाएगा 
खिलेंगे गुल गुलिंस्ता में 
भंवरा गुनगुनाएगा 
करो अब बात चैती की 
रश्मि पूनम की  छाती है 
करने उर्वरा  मन को
गुलाबी फिर बुलाती है
चलो आओ  मुडेरों पर
सृजन का बीज बो दे हम
जगत हो महकता मधुमास
हर्ष  का शंख गुंजा दे हम

उजले लोग

उजले लोग
उजालों  में जो भटके हैं
अंधेरों  से अब डरते हैं
मिले थे कल वो साए से
अब परछाईं से बचते  हैं
किये थे  दफ़न दस्तावेज़
सितमगर के गुनाहों के
जड़े ताबूत में कीलें अब
मागें हक़ पनाहों के
पुती कालिख स्याही की
नकाब पोशी  सफ़ेदी की
शहंशाह जुल्म के बन कर 
कहलातें है उजले लोग 
 

चुनौती


चुनौती 

कहता जीवन मरना छोड़ो 
अपने आप को छलना छोड़ो 
सांस की आस में धुयाँ हुआ  जो 
उन अनलों में तपना छोड़ो 
कहता जीवन व्यथा है कैसी 
चलती धारा कथा के जैसी 
हर इक अंक का अंत है निश्चित 
रंग मंच के मंचन जैसी 
जीवन का यह  राग पुराना 
गुंजित होता हर लम्हे पर 
चेतावनिया देता रहता यूं 
भूली  धुन का नया तराना 
कहता जीवन जी लो मुझको  
 स्वाति बूँद सा पी लो मुझ को 
पल पल प्रतिपल जो  हुआ असंभव  
 हो अजय तो जीतो मुझको