रविवार, 27 मार्च 2011

bhranti

 भ्रान्ति

चलने को तो  पग नहीं थे
फिर भी हम चलते ही रहे
कहने को तो  शब्द नहीं थे
फिर भी हम कहते ही रहे
 अनजान डगर ,अनजान सफ़र
अनजान दिशा अनजान नगर
अनजानों की बस्ती में
अनजाने ख्वाब पलते ही रहे
 टूटे बिखरे  hue  नष्ट सब 
मीत पुराने हुए रुष्ट सब 
हम  अपनी सुध बुध भूले
 दामन में सुधियाँ भरते रहे