रविवार, 6 मार्च 2011

mahtvaankankhsaa

 मह्त्वांकंक्षा

उन नन्ही झील सी आँखों में 
तैरा करते थे स्वप्पन कभी 
उन फूल से नाज़ुक ओंठो पर 
अठखेली करता था हास्य कभी 

वह  नन्हे पावों की थिरकन 
नृत्य जहां होता नतमस्तक 
वह मधुर कंठ वह तान राग 
संगीत जहां खुद देता दस्तक 

लुप्त हुए सब जीने के ढंग 
हो  गये फीके  जीवन के रंग 
मह्तावान्क्षा कुछ कर पाने की 
छोड़ गयी मौलिकता के रंग 

भूला बचपन खुद अपना बचपन 
तजा जवानी ने निज यौवन
बिसरी तरुणों ने तरुणाई
हुआ बुढापा विकल और अनमन

आश निराश  के झूले निस दिन 
जीवन अब झूला करता है 
हार जीत  की असमंजसता में 
पल प्रति पल पीड़ित रहता है