मह्त्वांकंक्षा
उन नन्ही झील सी आँखों में
तैरा करते थे स्वप्पन कभी
उन फूल से नाज़ुक ओंठो पर
अठखेली करता था हास्य कभी
वह नन्हे पावों की थिरकन
नृत्य जहां होता नतमस्तक
वह मधुर कंठ वह तान राग
संगीत जहां खुद देता दस्तक
लुप्त हुए सब जीने के ढंग
हो गये फीके जीवन के रंग
मह्तावान्क्षा कुछ कर पाने की
छोड़ गयी मौलिकता के रंग
भूला बचपन खुद अपना बचपन
तजा जवानी ने निज यौवन
बिसरी तरुणों ने तरुणाई
हुआ बुढापा विकल और अनमन
आश निराश के झूले निस दिन
जीवन अब झूला करता है
हार जीत की असमंजसता में
पल प्रति पल पीड़ित रहता है