बुधवार, 30 मार्च 2011

mrigtrishna ya ytharth

  मृगतृष्णा या यथार्थ

दस बजने को थे. सब छात्र परीक्षा केंद्र में जा जा चुके थे . उसकी बेटी भी बार बार अन्दर जाने के लिए आतुर हो रही थी क्योकि समय हो चुका था . लकिन वह थी आज उसे जाने नहीं देना चाह रही थी . उसके हाथ में मोबाइल फ़ोन था और सारा ध्यान उसी पर केन्द्रित था . बच्ची झल्ला कर बोली ' क्या बात है जाने क्यों नहीं दे रही हो'?
'रूक जाओ ! तुम्हारे लिए एक शुभकामना का सन्देश  आने वाला है उसे पढ़ कर जाना " कुछ ही समय बाद जब चपरासी ने स्कूल का दरवाज़ा बंद करना शुरू किया तो उसकी बेटी यह बोल कर कि उसे किसी की शुभकामनाये नहीं चाहिए . "मेरे साथ आप हो. मेरे साथ ठाकुरजी है .सब अच्छा होगा .मुझे जाने दो " .  और बेटी माँ के गले में लिपट कर परीक्षा केंद्र के अन्दर चली  गयी.  वक़्त की मांग थी. वह बस एक सन्देश की इंतज़ार में अवाक् और उदास थी. अपने ऑफिस जाने के लिए ऑटो रिक्शा की इंतज़ार में स्टैंड पर खड़ी हो कर बड़ी गहरी सोच में थी . इतने में एक ऑटो रिक्शा उसके निकट आ कर स्वत: रूक गया और चालक ने कहा " चलो मैं आप को छोड़ दूं "यूं तो मैं पुराने शहर जाता नहीं हूँ लेकिन आप को यहाँ खड़ा देख कर मुझे लगा कि आप को गंतव्य पर छोड़ दूं.' रस्ते में फिर चालक ने कहा कि दीदी आप को यह उदासी शोभा नहीं देती . आप के साथ सब अच्छा होगा. एकाएक उस साधारण से व्यक्तित्व के स्वामी की बात मन को छू गयी. सयंत हो कर उसने चालक से पूछ ही लिया." आप को कैसे पता चला की मैं उदास हूँ"? सिर्फ मुस्कुरा  दिया वह चालक .अब वह अपने आप को संभाल चुकी थी. 
सच है हम जिस के पीछे भागते हैं वह मृगतृष्णा बन कर छलता रहता है और जिसके  बारे में आप सोच भी नहीं सकते वही तृण सामान लगने वाला बहुत बड़ा संबल बन जाता है.