ईर्ष्या
मुरझाता सुंदर कोमल मन
प्रज्जवलित हो जब इर्ष्या दाह
भस्म हुए जाते सब अवयव
कसमसाती सी बचती आह
कलरव बन जाता कोलाहल
वाचाल शब्द हो जाते मौन
जीवन पीयूष बने हलाहल
चेतनता हो जाती गौण
ओ' पीड़ा की मृग नयनी
निज निवास में तेरा वास
उथल पुथल कर देता जग को
आश्रित हो जब आती पास